श्रीभरत का चरित्र सन्तुलित और पूर्ण है: रामानुजाचार्य

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May 30, 2022

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण कथा के समापन पर जगद्गुरू रामानुजाचार्य रत्नेशप्रपन्नाचार्य जी ने कहा, अयोध्या काण्ड साहित्य और भावात्मक दोनों ही दृष्टियों से रामायण का सर्वश्रेष्ठ अंग है

अयोध्या। व्यक्ति के जीवन में नेम और प्रेम का सम्यक निर्वाह एक साथ नहीं हो पाता।जहाँ प्रेम होता है वहाँ पर नेम को प्राय: त्याग दिया जाता है।भरत जी के चरित्र में प्रेम और नेम दोनों का एक साथ निर्वाह दिखाई देता है।नेम रहित प्रेम कभी-कभी समाज में उच्छृंखलता की सृष्टि करता है।भरत जी के चरित्र में लोकमंगल की भावना विद्यमान है।सिद्धि के साथ साधन तत्व की समग्रता ही भरत का चरित्र है। यह उदगार भरत की तपस्थली नंदीग्राम भरतकुंड पर आयोजित श्रीमद्वाल्मीकीयरामायण कथा के समापन सत्र में जगद्गुरू रामानुजाचार्य रत्नेशप्रपन्नाचार्य जी ने कही। उन्होंने कहा कि चरित्र ही जीवन की सबसे बड़ी स्थायी सम्पत्ति है। चरित्र ही वह जीवन-ज्योति है जो मनुष्य को कठिनाई, आपत्तियों, निराशा, अहंकार एवं अंधकार में मार्ग दिखाता है। चरित्र कोई कल्पना नहीं, यह तो जीवन का जगमगाता सूर्य है। श्रीराम के कर्त्तव्य पालन में, भरत के त्याग-तप में, मीरा के प्रेम में, राजा हरिश्चन्द्र के सत्यव्रत में, दधीचि के अस्थि दान में, श्रीकृष्ण के अनासक्ति योग में चरित्र की पूर्णता के दर्शन होते हैं। चरित्र जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है जिसके अभाव में एक कदम भी जीवन की गति आगे नहीं बढ़ सकती। रामानुजाचार्य जी ने कहा कि चरित्र ही जीवन रथ का सारथी है। उत्तम चरित्र जीवन को सही दिशा में प्रेरित करता है तो चरित्रहीनता पथ-भ्रष्ट करके कहीं भी विनाश गर्त में ढकेल सकती है। मानव-जीवन का कुछ सार है तो वह है मनुष्य का चरित्र। उत्कृष्ट चरित्र ही मानव-जीवन की कसौटी है। चरित्र ही मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। चरित्र का अर्थ है – अपने महान मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना। चरित्र ही जीवन में अन्य संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त करता है। जीवन की स्थायी सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है। जीवन की अंतिम सफलता या असफलता मनुष्य के चरित्र पर ही निर्भर करती है। व्यक्ति परिवार, राष्ट्र की स्थायी समृद्धि और विकास हमारे चारित्रिक स्तर पर ही निर्भर करते हैं। चारित्रिक हीनता से ही शक्ति समृद्धि और विकास का विघटन होने लगता है। यह एक दृढ़ चट्टान है जिस पर खड़ा व्यक्ति अजेय और महान होता है। रत्नेशप्रपन्नाचार्य जी कहते है कि लोकमान्य तिलक ने कहा है – ‘संसार में सच्चरित्र व्यक्ति ही उन्नति प्राप्त करते हैं।’ सम्पूर्ण जीवन, कार्य व्यवहार, विचार मनोभावों की निर्मलता, शुद्धि से ही चरित्र का गठन होता है। सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार, सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग है तो सद्भाव, सद्विचार, उत्कृष्ट, चिन्तन, नियमित व व्यवस्थित जीवन, शाँत, गंभीर, सुलझी हुई, राग द्वेष-हीन मनोभूमि चरित्र के परोक्ष अंग हैं। संक्षेप में आत्म-त्याग और अध्यवसाय चरित्र के महत्वपूर्ण आधार स्तंभ हैं। इस प्रकार अपने विचार मनोभाव, चेष्टाओं पर अपना नियंत्रण रखना तथा बुराइयों को छोड़कर जीवन में अच्छाइयों को महत्व देना ही आत्म-संयम है। महोत्सव के समापन पर विशाल संत सम्मेलन व वृहद भंडारे का आयोजन किया गया जिसमें रामनगरी अयोध्या के विशिष्ट संत शामिल हुए। आये हुए अतिथियों का स्वागत मंदिर से जुड़े संत परमात्मा दास जी ने किया।

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