रंग महल में झूले पर विराजे अवधविहारी-विहारिणी को पुष्पों एवं पुष्पलड़ियों से इस कदर आच्छादित किया गया कि फूल-बंगला बन गया


झूलन के लिए बनवाया गया साठ किलो चांदी का झूला
शुक्ल पक्ष की एकादशी को होगी गलबहियां की झांकी
बमबम यादव
अयोध्या। रामनगरी अयोध्या में मधुर उपासना परंपरा की शीर्ष पीठ श्रीरंगमहल में बीती शाम झूलनोत्सव का चरम परिभाषित हुआ। झूले पर विराजे अवधविहारी-विहारिणी को पुष्पों एवं पुष्पलड़ियों से इस कदर आच्छादित किया गया कि फूल-बंगला बन गया। भक्ति में पगे संतों के बीच फूल-बंगला में आराध्य को सजाने की परंपरा पुरानी है और रंगमहल में इस परंपरा पर अमल के साथ आराध्य के सम्मुख संगीत की महफिल सजाई गई। इस दौरान मंदिर के संस्थापक एवं रसिक संत पूज्य सरयूशरण महाराज सहित कुछ अन्य दिग्गज आचार्यों के पदों की प्रस्तुति से भक्ति, अध्यात्म एवं संस्कृति की प्रवाहित त्रिवेणी आकर्षण के केंद्र में रही और इस सलिला में डुबकी लगाने वालों में मणिरामदास जी की छावनी के उत्ताराधिकारी महंत कमलनयन दास आचार्य पीठ दशरथमहल बड़ास्थान पीठाधीश्वर बिदुगाद्याचार्य देवेंद्रप्रसादाचार्य, जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामदिनेशाचार्य, बावन जी मंदिर के वैदेही बल्लभ शरण, नाका हनुमानगढ़ी के महंत रामदास आदि सहित रामनगरी के संत शामिल रहे। उत्सव की अध्यक्षता रंगमहल के महंत रामशरणदास ने किया। उन्होंने संतों का स्वागत करने के साथ आभारपूर्वक विदाई दी। रात्रि आठ बजे से शुरू संगीत संध्या मध्यरात्रि शयन आरती के साथ समाप्त हुई।
रंगमहल में आचार्य परम्परा में परम्परागत रीति से ही उत्सव मनाया जाता है। यही नहीं आचार्यों की ओर से प्रयुक्त होने वाले उपकरणों का भी प्रयोग होता रहा है। इसी कड़ी में झूलन के लिए ढ़ाई सौ साल पुराने लकड़ी के झूले का प्रयोग हो रहा था। मंदिर महंत रामशरण दास ने बताया कि परमात्मा की इच्छा से उसी लकड़ी पर चांदी का वर्क चढ़ाकर इस साल भगवान को उसी झूले पर प्रतिष्ठित किया गया है। झूले के निर्माण में साठ किलो चांदी का इस्तेमाल हुआ है। यहां चल रहे झूलनोत्सव की कड़ी में सावन तीज यानि की 31 जुलाई को मणिपर्वत के झूलन उत्सव के लिए भी ठाकुरजी को शोभायात्रा के रुप में धूमधाम से ले जाया जाएगा।
रंगमहल की आचार्य परम्परा में सावन शुक्ल पक्ष की एकादशी को गलबहियां की झांकी सजाए जाने की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। मंदिर के पीठाधीश्वर महंत रामशरण दास महाराज ने बताया कि वाह्य जगत के लिए यह एक सांस्कृतिक उत्सव है लेकिन साधकों की दृष्टि से यह उपासना परम्परा है जो तत् सुखी सुखित्व की भावना से प्रेरित है जिसमें साधक आराध्य के सुख में ही सुख और आऩद की अनुभूति कर निरन्तर उन्हीं के चिंतन-मनन में व्यस्त रहते है जैसे कि एक मां अपने नन्हें बच्चे की चिंता करते हुए अपने सभी क्रियाकलाप को उसी के लिए समर्पित कर देती है। कार्यक्रम की देखरेख पुजारी साकेत जी व राहुल जी कर रहे है।